Kurukshetra Development Board

वराह नामक यह तीर्थ जींद से लगभग 11कि.मी. दूर सफीदों-जींद मार्ग पर बारहकलां ग्राम मे स्थित है। भगवान विष्णु के वराह अवतार से सम्बन्धित होने से ही इस ग्राम का नाम वराह कलां हुआ। वराह तीर्थ भगवान विष्णु से सम्बन्धित तीर्थों में प्रमुख तीर्थ है।
वराह भगवान विष्णु के तीसरे अवतार माने जाते है। पौराणिक आख्यानो के अनुसार कश्यप ऋषि एवं दैत्य माता दिति का पुत्र हिरण्याक्ष पृथ्वी पर सर्वत्र आसुरी साम्राज्य की स्थापना का संकल्प ले चुका था। हिरण्याक्ष के आततायी व्यवहार से सम्पूर्ण त्रिलोक में हाहाकार मचा हुआ था। तब पृथ्वी के उद्धार हेतु तथा हिरण्याक्ष के वध के लिए समस्त देवगणों तथा ऋषि महर्षियों ने मिलकर ब्रह्मा का स्मरण किया। उसी समय ब्रह्मा की नासिका से अंगूठे के बराबर आकार का एक गौर वर्ण शिशु प्रकट हुआ और तदनन्तर वह आकार में विशाल हो गया। यह गौर वर्ण शिशु ही वस्तुतः भगवान विष्णु का वराह अवतार थे। सभी देवगण उसकी वन्दना करने लगे। वराह ने रसातल पहुंचकर दैत्य राज हिरण्याक्ष के द्वारा छिपाई गई भूदेवी को अपने दाढ़ों पर धारण कर उसका उद्धार किया। पृथ्वी का उद्धार होने से सभी देव, ऋषि, महर्षि भगवान वराह के कृतज्ञ एवं ऋणी हुए।
इस तीर्थ का उल्लेख वामन पुराण, पद्म पुराण तथा महाभारत में मिलता है। महाभारत के अनुसार इस तीर्थ में विष्णु वराह रूप में विद्यमान हैं। वामन पुराण में इस तीर्थ का महत्त्व इस प्रकार वर्णित है:
वाराहं तीर्थमाख्यातं विष्णुना परिकीर्तितम्।
तस्मिन् स्नात्वा श्रद्दधानः प्राप्नोति परमं पदम्।।
(वामन पुराण 34/32)
अर्थात् इस तीर्थ में श्रद्धायुक्त चित्त से स्नान करने वाला मनुष्य परमपद का अधिकारी होता है। इस स्थान पर आने वाले तीर्थयात्री एवं श्रद्धालु जन स्नानादि करके भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करते हैं।
यहाँ स्थित वराह मन्दिर में भगवान विष्णु के वराह रूप की अष्टभुजी प्रतिमा स्थापित है जिसके दाहिनी तरफ ऊपर वाले हाथ में चक्र एवं नीचे वाले हाथ में गदा, तीसरा हाथ अभय मुद्रा में है तथा चैथा हाथ खण्डित है। बाँयीं तरफ ऊपरी हाथ के कन्धे पर भूदेवी विराजमान हैं। नीचे वाले हाथों में क्रमशः पद्म एवं शंख हैं तथा चैथा हाथ जंघा पर है। उनके शरीर में वनमाला सुशोभित है। मूर्तिफलक के दाँयें और बाँयें विद्याधरों को दिखाया गया है। बाईं तरफ घुटने के पास करबद्ध मुद्रा में नाग एवं नागकन्याओं को दर्शाया गया है। वराह की यह प्रस्तर प्रतिमा सौन्दर्य की दृष्टि से अनुपम है। 8-9वीं शती ई. की इस मूर्ति से इस स्थान की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है।
तीर्थ पर प्रत्येक वर्ष आषाढ़ तथा फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मेला लगता है।

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