त्रिविष्टप नामक यह तीर्थ करनाल-कैथल मार्ग पर कैथल से लगभग 19 कि.मी. की दूरी पर ट्योंठा नामक गाँव में स्थित है।
कुरुक्षेत्र के अधिकांश तीर्थों का सम्बन्ध हिन्दुओं के त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश से रहा है। कालान्तर में ब्रह्मा की महत्ता कम होती गई। महाभारत काल में विष्णु एवं शिव दोनों एक समान माने जाते थे। महाभारत तथा पौराणिक साहित्य में वर्णित अनेक तीर्थ इन दोनों देवतओं से सम्बंधित हंै। शिव से सम्बन्ध्ति सतत, पंचनद, सरक, अनरक, स्थाणेश्वर आदि तीर्थों में त्रिविष्टप तीर्थ का अपना विशेष महत्त्व है।
महाभारत एवं वामन पुराण दोनों में ही इस तीर्थ का वर्णन पुण्डरीक तीर्थ के बाद किया गया है। दोनों में ही यहां स्थित वैतरणी नदी का भी उल्लेख है। वैतरणी नदी कुरुक्षेत्र की नौ नदियों सरस्वती, दृषद्वती, गंगा, मंदाकिनी, मधुस्रवा, वासुनदी, कौशिकी, हिरण्वती आदि प्रमुख नदियों में से एक है। महाभारत में इस तीर्थ विषयक वर्णन निम्न प्रकार से है:
ततस्त्रिविष्टपं गच्छेत् त्रिषुलोकेषु विश्रुतम्।
तत्र वेैैतरणी पुण्यानदी पाप प्रणाशिनी।
तत्र स्नात्वा अर्चयित्वा शूलपाणिंवृषध्वजं।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत्परमां गतिम्।
(महाभारत वन, पर्व 83/84-85)
अर्थात् तत्पश्चात् तीनों लोकों में विख्यात त्रिविष्टप नामक तीर्थ में जाना चाहिए। जहां सर्व पाप नाशक वैतरणी नदी है। इस पवित्र नदी में स्नान करके एवं भगवान शंकर की अर्चना करने से सभी पापों से मुक्त हुआ व्यक्ति परमगति को प्राप्त करता है। वामन पुराण के अनुसार भी इस तीर्थ का महत्त्व महाभारत में दिये गए महत्त्व से शतशः साम्य रखता है:
ततः त्रिविष्टपं गच्छेत् तीर्थं देवनिषेवितम्।
तत्र वैतरणी पुण्यानदी पापप्रमोचिनी।
तत्र स्नात्वाऽर्चयित्वा च शूलपाणिं वृषध्वजं।
सर्वपाप विशुद्धात्मा गच्छत्येव परं गतिम्। (वामन पुराण)
उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि इस तीर्थ का महत्त्व एवं पुण्य फल महाभारत तथा वामन पुराण में लगभग एक जैसा था।