Kurukshetra Development Board

फल्गु तीर्थ, नामक यह तीर्थ कैथल से लगभग 21 कि.मी. दूर फरल नामक ग्राम में स्थित है। फरल ग्राम का नामकरण भी सम्भवतः फलकी वन से ही हुआ प्रतीत होता है जहां फल्गु ऋर्षि निवास करते थे। वामन पुराण में काम्यक वन, अदिति वन, व्यास वन, सूर्यवन, मधुवन एवं शीत वन के साथ फलकीवन का भी उल्लेख हुआ है। यह सभी सात वन प्राचीन कुरुक्षेत्र भूमि के प्रमुख वन थे।
श्रृणु सप्त वनानीह कुरुक्षेत्रस्य मध्यतः।
येषां नामानि पुण्यानि सर्वपापहराणि च।
काम्यकं च वनं पुण्यं तथा अदितिवनं महत्।
व्यासस्य च वनं पुण्यं फलकीवनमेव च।
तथा सूर्यवनस्थानं तथा मधुवनं महत्।
पुण्यं शीतवनं नाम सर्वकल्मषनाशनम्।
(वामन पुराण 34/3-5)
इस तीर्थ का वर्णन महाभारत, वामन पुराण, मत्स्य पुराण तथा नारद पुराण में भी मिलता है। महाभारत एवं वामन पुराण दोनों में यह तीर्थ देवताओं की तपस्या की विशेष स्थली के रूप में उल्लिखित है। महाभारत वन पर्व में तीर्थयात्रा प्रसंग के अन्तर्गत इस तीर्थ के महत्त्व के विषय में स्पष्ट उल्लेख है।
महाभारत के अनुसार इस तीर्थ में स्नान करने एवं देवताओं का तर्पण करने से मनुष्य को अग्निष्टोम तथा अतिरात्र यज्ञों के करने से भी कहीं अधिक श्रेष्ठतर फल को प्राप्त होता है। वामन पुराण के अनुसार सोमवार की अमावस्या के दिन इस तीर्थ में किया गया श्राद्ध पितरों को वैसा ही तृप्त और सन्तुष्ट करता है जैसा कि गया में किया गया श्राद्ध। कहा जाता है कि मात्र मन से जो व्यक्ति फलकीवन का स्मरण करता है निःसन्देह उसके पितर तृप्त हो जाते हैं। इस तीर्थ से सम्बन्धित एक कथा के अनुसार गया तीर्थ निवासी गयासुर नामक एक दैत्य को पराजित कर फल्गु ऋषि ने उसकी पुत्रियों सोमा, भोमा और खोमा से विवाह किया था।
फल्गु ऋषि का सर्वाधिक प्रेम सोमा से था तथा सोमा से सम्बन्ध्ति होने के कारण ही सोमवती अमावस्या प्रसिद्ध हुई। गयासुर ने फल्गु ऋषि को वरदान दिया था कि फलकीवन में आश्विन मास की सोमवती का योग होने पर पिण्डदान का महत्त्व सबसे अधिक होगा तथा उस दिन गया में पिण्डदान नहीं किया जाएगा। तभी से आश्विन मास की सोमवती अमावस्या के दिन लाखों की संख्या में तीर्थ यात्री पितरों को संतुष्ट व प्रसन्न करने हेतु यहां पिण्डदान करने आते हैं। इस अवसर पर यहां विशाल मेला लगता है।

LOCATION

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *