मानुष नामक यह तीर्थ कैथल से लगभग 12 कि.मी. दूर मानस ग्राम में स्थित है। कुरुक्षेत्र भूमि में स्थित इस तीर्थ की प्राचीनता ऋग्वेद में इसका वर्णन मिलने से स्वतः सिद्ध हो जाती है । वैदिक काल में ऋषियों ने इसी पवित्र तीर्थ पर अग्नि को स्थापित किया था। यह वर्णन ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 128 वें सूक्त के सातवें श्लोक में मिलता है।
वामन पुराण तथा स्कन्दपुराण में इस तीर्थ का नाम एवं महत्त्व वर्णित है:
ततो गच्छेत् राजेन्द्र मानुषं लोकविश्रुतम्।
यत्र कृष्णमृगा राजन् व्याधेन शरपीड़िता।।
विगत्य तस्मिन् सरसि मानुषत्वमुपागता:।
तस्मिन् तीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी समाहिता:।।
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते।
(महाभारत, वन पर्व, 83/65-67)
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि इस सरोवर में स्नान करने से व्याध के बाण से आहत मृग चूंकि मानुष शरीर पा गए थे, इसी से इस तीर्थ का नाम मानुष तीर्थ हुआ। वहां ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकाग्र चित्त होकर स्नान करने वाला मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है।
वामन पुराण में तथा स्कन्दपुराण में भी महाभारत के समान ही इस तीर्थ की उत्पत्ति बताई है। वामन पुराण के अनुसार पूर्वकाल में शिकारियों के बाण से विद्ध कृष्ण मृग इसी सरोवर में स्नान कर मनुष्यत्व को प्राप्त हुए थे । मृगों की खोज करते व्याधों ने जब सरोवर पर स्थित श्रेष्ठ द्विजों से मृगों के विषय में यह प्रश्न किया कि हम लोगों के बाणों से पीड़ित इस मार्ग से जाते हुए वे काले मृग सरोवर से कहाँ चले गए तो उन द्विजोत्तमों ने उत्तर दिया कि हम द्विजोत्तम ही वे कृष्ण मृग थे। इस तीर्थ के धार्मिक महात्म्य से ही हम सब मनुष्य बन गए हैं। अतएव मस्तर-ईष्र्यादि से मुक्त होकर श्रद्धायुक्त चित्त से इस तीर्थ में स्नान करने पर तुम सब भी समस्त पापों से मुक्त हो जाओगे:
उन ब्राह्मणों के उपरोक्त वचन सुनकर वे सभी व्याध भी उस में स्नान कर शुद्ध देह होकर स्वर्ग चले गए।
इस मानुष तीर्थ का महात्म्य इतना अधिक है कि इसका श्रवण मात्र करने वाला व्यक्ति भी परमगति को प्राप्त करता है तथा इस तीर्थ का दर्शन करने पर समस्त पापों से छूट जाता है: