ग्यारह रुद्री नामक यह तीर्थ कुरुक्षेत्र से लगभग 51 कि.मी. की दूरी पर कैथल नगर में स्थित है।
एकादश रुद्रों से सम्बन्ध्ति पर्याप्त सामग्री महाभारत तथा विभिन्न पुराणों में उपलब्ध होती है। इन एकादश रुद्रों के नाम विभिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।
महाभारत में आदि पर्व के अन्तर्गत 66 वें अध्याय में ऋषि वेैशम्पायन ग्यारह रुद्रों की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा से बताते हैं। ब्रह्मा जी के छः मानस पुत्र छः महान् ऋषि थे। स्थाणु भी ब्रह्मा के अन्य मानस पुत्र थे जिनके ग्यारह महान शक्तिशाली पुत्र थे। उनके नाम क्रमशः मृगव्याध, निऋति, अजैकपाद, दहन, ईश्वर, कपाली, स्थााणु, भग, सर्प, अहिर्बुध एवं पिनाकी थे। ये ग्यारह ही एकादश रुद्रों के नाम से विख्यात हुए:
एकादशसुताः स्थाणोः ख्याताः परम तेजसः।
मृगव्याधश्चसर्पश्च निऋतिशचमहायशः।
अजैकपादहिर्बुधन्यः पिनाकी च परंतपः।
दहनोअथेश्वरश्चैव कपाली च महाद्युति।
स्थाणुर्भगश्चभगवान् रुद्राएकादशस्मृताः।
(महाभारत, आदि पर्व 66/1-3)
रुद्र मात्र पौराणिक काल में ही उपास्य नहीं थे अपितु वैदिक काल में साधारण देवता के रूप में पूजनीय थे क्योंकि वेदों में इनकी स्तुति में सूक्त मिलते हैं। पौराणिक काल में रूद्र के शिवरूप का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया था। विष्णु पुराण में वर्णन है कि ग्यारह रुद्रों को ब्रह्मा ने हृदय के ग्यारह स्थानों पर नियुक्त किया था। कैथल स्थित इस मन्दिर का नाम शिव के ग्यारह रुद्रों के स्थापित होने से ही ग्यारह रुद्री शिव मन्दिर पड़ा है। वस्तुतः ग्यारह के ग्यारह रुद्र शिव के ही अंशावतार हैं। जनश्रुतियों के अनुसार महाभारत युद्ध के अन्त में अश्वत्थामा ने रात्रि को पाण्डव शिविर पर आक्रमण करने से पूर्व इसी स्थान पर भगवान शिव की पूजा-अर्चना की थी।
यहां स्थित मन्दिर के गर्भगृह में एकादश रुद्रों के 11 लिंग हैं। मन्दिर की आन्तरिक भित्तियों में जीव-जन्तुओं व प्राकृतिक दृश्यों के चित्रों सहित हनुमान, दुर्गा, विष्णु, वराह अवतार आदि चित्रों का भी चित्रण है।