चक्रतीर्थ नामक यह तीर्थ कैथल-पूण्डरी-राजौन्द मार्ग पर कैथल से लगभग 27 कि.मी. किलोमीटर दूर सेरहदा ग्राम में स्थित है।
सेरहदा नामक ग्राम में स्थित इस तीर्थ का वर्णन पौराणिक साहित्य में चक्रतीर्थ के रूप में मिलता है। सम्भवतः कालान्तर में चक्र तीर्थ ही चक्रमणि के नाम से जाना जाने लगा। यद्यपि महाभारत में इस तीर्थ का नामोल्लेख नहीं मिलता तथापि वामन पुराण एवं अन्य पुराणों में किंचित परिवर्तन के साथ इस तीर्थ का नामोल्लेख एवं महत्त्व स्पष्ट वर्णित है। ब्रह्मपुराण में इस तीर्थ का नामोल्लेख एवं महत्त्व स्पष्ट वर्णित है:
अस्ति ब्रह्मन्महातीर्थं चक्रतीर्थमिति श्रुतम्।
तत्र स्नानान्नरो भक्त्याहरेर्लोकमवाप्नुयात्।
(ब्रह्म पुराण 86/1)
अर्थात् चक्रतीर्थ नामक एक परम प्रसिद्ध महातीर्थ है, उस तीर्थ में भक्तिपूर्वक स्नान करने से मनुष्य विष्णुलोक को प्राप्त करता है ।
इस तीर्थ सम्बन्धित कथा के अनुसार विश्वधर नामक एक वैश्य का पुत्र युवावस्था में काल का ग्रास बन गया। पुत्र शोक से व्याकुल वह वणिक् एवं उसकी धर्मपत्नी के विलाप से यम का हृदय द्रवित हो गया तथा वे अपने लोक को छोड़कर भगवान विष्णु का ध्यान करने लगे। यम के अपना लोक छोड़ देने पर पृथ्वी लोक में कोई मृत्यु न होने से वसुन्धरा भार से आक्रान्त हो गई तब वसुन्धरा ने इन्द्र के समीप जाकर उन्हें यम को प्रजाओं के संहारकारी कार्य में प्रवृत्त करने को कहा। इन्द्र यमराज को यम लोक में न पाकर क्रोधित हुए क्योंकि यमराज उस समय घोर तपस्या में लीन थे। इस पर क्रोधित हुए इन्द्र्र स्वयं देवताओं की सेना लेकर यम से युद्ध करने चल पड़े। इन्द्र के मन की ऐसी कुटिलता को भाँप कर सज्जनों के रक्षक चक्रधारी भगवान विष्णु ने यम की रक्षार्थ अपने सुदर्शन चक्र को भेज दिया। जिस स्थान पर यह चक्र रक्षार्थ प्रकट हुआ, वही परमश्रेष्ठ चक्रतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ।
एक अन्य जनश्रुति के अनुसार महाभारत युद्ध से पूर्व इसी स्थान पर ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण ने महावीर बर्बरीक से उनका शीश दान में लिया था। बर्बरीक ने एक बहुत ऊँचे स्तम्भ पर स्थापित अपने कटे सिर से ही सम्पूर्ण महाभारत का युद्ध देखा था। शीश दान में लेने के कारण ही इस गाँव का नाम सेरहदा पड़ा।