अरन्तुक यक्ष को समर्पित यह तीर्थ कैथल से लगभग 26 कि.मी. दूर कैथल-पटियाला जिलों की सीमा पर बेहरजख ग्राम के पश्चिम में स्थित है।
वन पर्व में इसे कुरुक्षेत्र भूमि के रक्षक चार यक्षों में से एक बताया गया है:
तरंकतुकारंतुकयोः यदंरतनंरामह्रदानां च मचक्रुकस्य।
एततकुरुक्षेत्रसमंतपंचकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते।।
(महाभारत, वन पर्व 83/208)
अर्थात् तरन्तुक, अरन्तुक, रामह्रद तथा मचक्रुक के मध्य का भू-भाग ही कुरुक्षेत्र अथवा समन्तपंचक है, जिसे ब्रह्मा जी की उत्तर वेदी भी कहते हैं ।
ततोगच्छेत् राजेन्द्र द्वारपालं अरन्तुकम् ।
यच्चतीर्थं सरस्वत्यां यक्षेन्द्रस्य महात्मनः ।।
तत्रस्नात्वानरो राजन् अग्निष्टोमफलं लभेत्।
(महाभारत, वन पर्व 83.52-53)
अर्थात् हे राजेन्द्र ! तत्पश्चात् अरन्तुक नामक द्वारपाल के समीप जाना चाहिए जो कि सरस्वती के तट पर स्थित है तथा जो यक्षेन्द्र (यक्षों के स्वामी) से सम्बन्धित है। हे राजन ! वहां स्नान करने पर मनुष्य को अग्निष्टोम का फल प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि महाभारत काल में चारों द्वारपालों में से यह यक्ष सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सम्मानीय स्थान प्राप्त कर चुका था।
यहाँ स्थित मन्दिर के बरामदे के साथ लगते हुए एक कक्ष में भगवान विष्णु की एक मध्यकालीन प्रतिमा है। बालुका पत्थर की इस स्थानक विष्णु प्रतिमा के दाहिने भाग के ऊपरी हाथ में गदा व निचला हाथ वरद मुद्रा में है। बाँयें ऊपरी हाथ में चक्र व निचले हाथ में शंख है। मूर्ति के दोनों पाश्र्वों में लघु मन्दिराकृतियां उत्कीर्ण हैं। दाँयीं मन्दिराकृति के नीचे क्रमशः ब्रह्मा, वामन, नृसिंह, वराह, कूर्म एवं मत्स्यावतार को दिखाया गया है जबकि बाँयीं मन्दिराकृति में शिव व चैत्यों में परशुराम, राम, बलराम एवं कल्कि अवतार दिखाए गए हैं। मूर्ति के पायदान वाले भाग में बाँयीं तरफ तीन पुरुष व दो नारियाँ उत्कीर्ण हैं। पुरुषों के हाथ में कर्णफूल व नारियों के हाथ में घड़े हैं। दाँयीं ओर भी इसी तरह पुरुष एवं नारियों का उत्कीर्णन है। मूर्ति में गदा, चक्र एवं प्रभा मण्डल के ऊपर विद्याधर एवं लघु मन्दिराकृतियों में गन्धर्वों का चित्रण है। मूर्ति के पाश्र्व में व्याल है। पायदान में गणों का उत्कीर्णन है। इस तीर्थ के दक्षिण-पूर्व में सिक्खों के नवम गुरु तेगबहादुर जी को समर्पित एक गुरुद्वारा है ।