पृथूदक नामक यह तीर्थ कुरुक्षेत्र से लगभग 28 कि.मी. की दूरी पर पिहोवा में सरस्वती नदी के किनारे स्थित है। महाभारत में इस तीर्थ को कुरुक्षेत्र के तीर्थों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तीर्थ कहा गया है।
पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वतीम्।
सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम्।
(महाभारत, वन पर्व 8/1,.25)
इस तीर्थ के महात्म्य का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त भागवत पुराण, भविष्य पुराण, वामन पुराण, वायु पुराण आदि में भी मिलता है। इस तीर्थ का नामकरण महाराज पृथु के नाम पर हुआ है जिन्होंने इस स्थान पर अपने पितरों हेतु उदक (जल) द्वारा तर्पण किया था। वामन पुराण के अनुसार भगवान शंकर ने भी प्राचीन काल में पृथूदक में विधिपूर्वक स्नान किया था:
शंकरोऽपि महातेजा विसृज्य गिरिकन्यकां।
पृथूदकं जगामाथ स्नानं चक्रे विधानतः।।
(वामन पुराण)
वामन पुराण की ही एक कथा के अनुसार गंगाद्वार पर रुषंगु का निवास स्थान था। अपने अन्तकाल को समीप आया देख उसने अपने पुत्रों से स्वयं को पृथूदक ले जाने का आग्रह किया। उसके इस आशय को जान उसके पुत्र उसे पृथूदक तीर्थ में ले गए। रुषंगु ने यहां स्नान किया तथा इस तीर्थ के महत्त्व को बताते हुए कहा कि सरस्वती के उत्तरी तट पर स्थित पृथूदक तीर्थ में जो व्यक्ति जप करता हुआ अपने शरीर का त्याग करता है वह निःसन्देह शाश्वत पद का अधिकारी होता है।
सरस्वती नदी के तट पर स्थित इस तीर्थ के साहित्यगत विवरण को इस क्षेत्र से मिलने वाले पुरातात्त्विक अवशेष पुष्ट करते हैं तथा पृथुदक क्षेत्र से मिली विभिन्न ऐतिहासिक कालों की मूर्तियों से भी इस तथ्य की अपरोक्ष पुष्टि होती है।