कायशोधन नामक यह तीर्थ जींद से लगभग 19 कि.मी. दूर कसूहन ग्राम में स्थित है। कसूहन में स्थित इस तीर्थ के नाम से ही प्रतीत होता है कि यह तीर्थ काया अर्थात् देह को शुद्ध करने वाला है । इस तीर्थ का वर्णन महाभारत एवं वामन पुराण दोनों में ही उपलब्ध होता है। महाभारत में इस तीर्थ के महत्त्व विषयक निम्न श्लोक है:
कायशोधनमासाद्य तीर्थं भरतसत्तम ।
शरीरशुद्धि स्नातस्य तस्मिस्तीर्थे न संशय:।।
(महाभारत, वन पर्व 83/42)
अर्थात् हे भरतश्रेष्ठ! कायशोधन तीर्थ में जाकर स्नान करने वाले मनुष्य की शरीरशुद्धि हो जाती है इसमें कोई संशय नहीं है।
वामन पुराण में दिए गए वर्णन से ज्ञात होता है कि महाभारत काल की अपेक्षा इस काल में उक्त तीर्थ का महत्त्व अपनी प्रगति की पराकाष्ठा पर था:
कायशोधनमासाद्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
शरीरशुद्धिमाप्नोति स्नातस्तस्मिन् न संशयः।
शुद्धदेहश्च तं याति यस्मान्नावर्तते पुनः।
तावद् भ्रमन्ति तीर्थेषु सिद्धास्तीर्थपरायणाः।
यावन्न प्राप्नुवन्तीह तीर्थं तत्कायशोधनम्।
(वामन पुराण 35/17-18)
उक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि वामन पुराण में भी इस तीर्थ के सेवन का फल महाभारत की भाँति शरीर शुद्धि बताया है लेकिन इससे आगे विस्तार में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि इस शुद्ध देह को प्राप्त करके मनुष्य उस स्थान को जाता है जहाँ से वह पुनः नहीं लौटता। भावार्थ यह है कि वह मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इस तीर्थ को सर्वाधिक श्रेष्ठ समझते हुए अन्त में लिखा है कि तीर्थ प्रेमी सिद्ध पुरुष तभी तक तीर्थों में भ्रमण करते रहते हैं जब तक वे उस कायशोधन नामक तीर्थ में नहीं पहुँचते अर्थात् कायशोधन नामक तीर्थ का सेवन करने के पश्चात् किसी अन्य तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं रहती।
इस तीर्थ के प्रति यहाँ जनसाधारण में दृढ़ आस्था पाई जाती है। लोक प्रचलित विश्वास के अनुसार यहाँ स्नान करने से सभी दैहिक (शारीरिक) रोग नष्ट हो जाते हैं। कहते हैं कि महाराजा पटियाला का कुष्ठ रोग भी इस तीर्थ के स्नान से दूर हो गया था।